तीन चार रोज़ हुए, साँस के साथ
सीने में कुछ दर्द सा होने लग गया;
हमने सोचा डेढ़ पसली के शरीर में
ये क्या नया मर्ज़ लग गया।
डॉक्टर से मिले तो उसने कहा-
ज़नाब एक्स-रे करवाओगे
हमने कहा- यार कड़की है,
तुम तो हमें मरवाओगे।
डॉक्टर बोला मरवाएंगे नहीं, जिलाएंगे
और जो हमारा शक ठीक निकला,
तो साल भर तक दवाई खिलाएंगे।
जब से ये सुना है,
होश हमारे गुम हो गये हैं;
उम्मीद के जो सितारे अब तक बचे थे
वो भी मुँह छुपाके सो गये हैं।
इस बात में असल समस्या है ये आई,
कि इलाज़ के लिये पैसे ही नहीं हैं भाई।
यूँ भी देश में ज्यादातर लोगों के पास
इतने पैसे कहाँ हो पाते हैं;
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
किताबों को चिल्लाते हैं।
दिन भर मेहनत करते हैं,
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है;
कोई और जरूरत आ पड़े,
तो परिचितों से उधार माँगना पड़ जाता है।
अगर हमें भी इलाज़ कराना पड़ा,
तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे;
अब हम ये सोचकर परेशान हैं
कि इतने उधार देने वाले
कहाँ से आएंगे?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
रचना में एक आम इंसान का बखूबी वर्णन किया है।एक आम आदमी के दर्द को काफि सहज व सरल ढंग से उजागर किया है।सुन्दर रचना है ।बधाई।
बहुत दर्द और बेबसी झलकती है आपकी इस रचना में,..एक तो गरीबी उसपर ये बिमारी,
बहुत अच्छा लिखा है
इतने पैसे कहाँ हो पाते हैं;
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
किताबों को चिल्लाते हैं।
दिन भर मेहनत करते हैं,
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है;
कोई और जरूरत आ पड़े,
तो परिचितों से उधार माँगना पड़ जाता है।
सुनीता(शानू)
बहुत सीधी सपाट भाषा में सच्चाई एवं ह्रदय की पीड़ा बयान की है आपने....अच्छा लगा
अजय जी एक दर्द भारी सच्चाई को आपने बहुत ही गहरे भाव से लफ़्ज़ो में ढाला है
कि इलाज़ के लिये पैसे ही नहीं हैं भाई।
यूँ भी देश में ज्यादातर लोगों के पास
इतने पैसे कहाँ हो पाते हैं;
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
किताबों को चिल्लाते हैं।
दिन भर मेहनत करते हैं,
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है;
सहज व सरल रचना है..
.... सोचने का विषय है...
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
जनाब यही हेठा भाग्य है हमारे देश का।
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है;
कोई और जरूरत आ पड़े,
तो परिचितों से उधार माँगना पड़ जाता है।
अगर हमें भी इलाज़ कराना पड़ा,
तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे;
अब हम ये सोचकर परेशान हैं
कि इतने उधार देने वाले
कहाँ से आएंगे?
अजय जी, आप की बात बिल्कुल सही है क्यूँकि भारत की करीब सत्तर करोड़ आबादी आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। स्थिति तो यहाँ तक है कि घर में किसी के गम्भीर रूप से बीमार पड़ने पर कहीं न कहीं ये बात उठने लगती है कि मर ही जाता तो भी अच्छा होता।
अजय जी कविता में सरलता है, आप अपनी बात पूरी तरह पाठकों तक पहुँचाने में सफल हुए हैं
इतने पैसे कहाँ हो पाते हैं;
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
किताबों को चिल्लाते हैं।
दिन भर मेहनत करते हैं,
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है..
यद्यपि पढते हुए कविता में "मंचीय कविता" के कई तत्व मिले, इसे स्टेज पर पढें..इसकी रवानगी इसी तरह की है।
बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपकी कविता हमारी दरिद्रता को वर्णित करती है। पिछले महीने जब मैं बुरी तरह बीमार हुआ था और जब डॉक्टर ने कहा कि मुझे लगभग रु ३००० के चेक-अप कराने पड़ेंगे तो मैं इस बात को लेकर परेशान हो गया कि इतना पैसा कहाँ से आयेगा? मुझे वही वाली बात याद आ गई।
आपको एक टिप्स देना चाहूँगा। कविता चाहे तुकांत हो या अतुकांत उसमें व्याकरण के नियमानुसार पूर्ण वाक्य जैसी पंक्तियाँ लिखने से बचना चाहिए।
ह्म्म्म्म्
गंभीर विषयवस्तु
मौन ही रहने दें अजय जी
सस्नेह
गौरव शुक्ल
bahut accha likha he kavita me dard ke sath sath majburi ko bhi bakhovi darshaya he
कि इलाज़ के लिये पैसे ही नहीं हैं भाई।
यूँ भी देश में ज्यादातर लोगों के पास
इतने पैसे कहाँ हो पाते हैं;
अक्सर बच्चे खिलौनों को मचलते हैं,
किताबों को चिल्लाते हैं।
दिन भर मेहनत करते हैं,
तब दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है;
bahut acchi lagi
ap bahut acche kavi he muje to apki agli rachnao ka besabri se intzar he
OMVEER CHAUHAN
AJAYs fan
एक आम बेबस मजबूर परिवार के मुखीया की करूण व्यथा का सुन्दर शब्द चित्रण ।
कविता को पढ़ने और पसंद करने के लिये साथी कवि मित्रों और सुधी पाठकों का मैं आभारी हूँ। विशेषतया शैलेश जी का, जिन्होंने मुझे कुछ अच्छे सुझाव दिये। मैं भविष्य में इसका ध्यान रखूँगा।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)