अशांत थे भीष्म
मन के हिमखंडों से
पिघल-पिघल पड़े, गंगा से विचार..
कि कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?
रथ का वह पहिया उठा कर, बेबस मानव से तुम
धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?
मन के हिमखंडों से
पिघल-पिघल पड़े, गंगा से विचार..
कि कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?
रथ का वह पहिया उठा कर, बेबस मानव से तुम
धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?
तुम जानते थे कि अर्जुन का वध मैं नहीं करूँगा
तुम्हारा गीताज्ञान आत्मसात करने के बावजूद..
तुम यह भी जानते थे कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा से बाध्य नहीं था
तब मेरे अनन्यतम आराध्य
तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?
तुम्हारा गीताज्ञान आत्मसात करने के बावजूद..
तुम यह भी जानते थे कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा से बाध्य नहीं था
तब मेरे अनन्यतम आराध्य
तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?
मैं विजेता था उस क्षण
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया
जहाँ मैं तुमसे उँचा, तुम्हारे ही सम्मुख “करबद्ध” था?
मैंने तुम्हें बचाया है कृष्ण
और व्यथित हूँ
धर्म अब मेरी समझ के परे है
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया
जहाँ मैं तुमसे उँचा, तुम्हारे ही सम्मुख “करबद्ध” था?
मैंने तुम्हें बचाया है कृष्ण
और व्यथित हूँ
धर्म अब मेरी समझ के परे है
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:..
तब तुम ही आते हो न धर्म की पुनर्स्थापना के लिये?
तो क्या किसी भी कीमत पर विजय, धर्म है?
तुम क्या स्थापित करने चले हो यशोदा-नंदन
सोचो कि तुमने मुझे वह चक्र दे मारा होता
और मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये
तब तुम ही आते हो न धर्म की पुनर्स्थापना के लिये?
तो क्या किसी भी कीमत पर विजय, धर्म है?
तुम क्या स्थापित करने चले हो यशोदा-नंदन
सोचो कि तुमने मुझे वह चक्र दे मारा होता
और मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये
अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?
*** राजीव रंजन प्रसाद
22.04.2007
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?
*** राजीव रंजन प्रसाद
22.04.2007
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
24 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छा लिखा है, अच्छे प्रश्न रखें हैं । उत्तर तो शायद किसी के पास नहीं होंगे ।
घुघूती बासूती
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?
कई गहरे प्रश्न हैं और जवान शायद कृष्ण के पास भी न हो , ईश्वर पर और इस राजनीति पर मानवीय बौद्धिक क्षमता का यह प्रश्न चिरंतन है ।
क्या कहें राजीव जी,
अब आपके अंदाज के;
छेड़ डाले तार सारे
इस हृदय के साज के।
जब कभी भी देखता हूँ
आपकी कविता यहाँ,
सोचता हूँ, रत्न भू पर
आज भी हैं कम कहाँ?
लेखनी में आपकी,
कोई अनोखी आग है;
आपके अंदाज में
निश्चय बड़ी कुछ बात है ।
जवान- जवाब
nice poem
keep it up
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
और इसके लिये इनसान बलिदान चाहिये
अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा
मुझे मुक्ति, लम्बा सफर देगा
मन का यह बोझ सालता रहेगा फिर भी
कि धर्म और राजनीति क्या चेहरे हैं दो
चरित्र एक ही?
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना है ...
पुरातन इतिहास का सुन्दर चित्रण प्रश्नों की बौछार के साथ...क्या होता, क्या न होता को छोड देना चाहिये... जो हो चुका वही महत्वपूर्ण है और सार्थक भी...
बधायी
पुनः मंत्रमुग्ध किया है आपकी कविता ने|
गंभीर संदेश और प्रश्नों से सजी इस कृति का सौन्दर्य अप्रतिम है
"कृष्ण! यदि आज तुम प्रहार कर देते
तो क्या इतिहास फिर भी तुम्हें ईश्वर कहता?"
"धर्म-अधर्म की व्याख्याओं से परे
यह क्या करने को आतुर थे?
स्तंभ नोचती बिल्ली के सदृश्य?"
"तुम्हारी अपनी ही व्याख्याओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों?"
सत्य है
"मैने हर्षित हो वरण किया होता मृत्यु का
स्वेच्छा से..
तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम"
यदि प्रिय पंक्तियाँ उद्धृत करने चलूँगा तो कहीं पूरी कविता पुनः न लिख दूँ
"अब तुमने जीवन की इच्छा हर ली है
शिखंडी का रहस्य फिर तुम्हारे मित्र को सर्वश्रेष्ठ कर देगा"
क्या कहूँ, किन्तु निश्चित ही यह कविता आपकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से है
बधाई एवं आभार
सस्नेह
गौरव शुक्ल
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये
सुन्दर चित्रण
मंत्रमुग्ध हूँ
आपकी रचना
ख़ूबसूरत
और
सार्थक भी...
बधाई ..
आभार..
सस्नेह
गीता
बधाई एवं आभार
सस्नेह
Excellent
Mindblowing
Heart Touching
Great Questions
Good Presentation
Unique Word Selection
Exclusive Rythm n Rhym
Aapki saari ki saari kavita hi pasand aai hai..isliye 2-4 lines dubara nahi doharungi....
Nanam Chindanti Shastraani
Nanam dihati paavaka
N chanam clediyaantaapo
na shoshiyatti maarutah.....
राजीवजी नमस्कार,
रचना अच्छी है! आपका यह प्रश्न वाकयी विचारणीय है कि क्या प्रहार कर देने के बाद भी इतिहास कृष्ण को ईश्वर कहता?
अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?
इन पंक्तियों मे यदि "न कि तुम्हारी सेना" ना भी लिखा होता तो भी भावार्थ वही बना रहता।
अच्छी रचना है, बधाई स्वीकारें!
न कि तुम्हारी सेना
राजीव जी रचना बेहद सुन्दर है मगर आपकी ये रचना दिल को छ्लनी कर देती है,...भीष्म को क्या अधिकार है की वो कृष्न से सवाल करे? भीष्म तो एक कापुरुष था,..जिसके सामने ही उसकी पुत्र-वधू का वस्त्र हरण हो रहा था उस वक्त कहाँ थी ये धर्म- अधर्म की बातें जब एक अबला की पुकार सुन कर सभा मे से कोइ नही आगे आया, उसे बचाने को,..और फ़िर साथ दिया तो भी उस अधर्मी दुर्योधन का? अधर्म को देखना, अधर्मी का साथ देना सभी अधर्म करने के बराबर ही होता है,..कृष्ण ने चतुराई जरूर की थी मगर कोई अधर्म नही किया,...आज भी मेरे देश की हर नारी को तलाश है उसी कृष्ण की कि वो फ़िर धरती पर आये,...भीष्म की नही...
सुनीता(शानू)
वाह राजीव जी, बहुत अच्छा। मैं बहुत दिनों से इंतजार में था कि कोई मेरी कविता मुझे विदुर चाहिए के बरक्स भीष्म का पक्ष रखे। मेरी कविता के उत्तर में कुछ पाठकों ने भीष्म का पक्ष रखने की कोशिश भी की, खासकर अनुजा जी ने। लेकिन आज आपकी इस कविता को पढ़कर मुझे हार्दिक संतुष्टि हुई। संयोग देखिए, आपने भी वही तस्वीर लगाई है कविता के साथ, जो मैंने लगाई थी।
चूंकि मैं कृष्ण के पक्ष से सोचता रहा हूं, इसलिए आपके प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूं।
महानता का वही एक क्षण पाना भीष्म की आखिरी इच्छा थी जिसे कृष्ण को हर हाल में पूरा करना ही था, भले ही इसके लिए उन्हें अपने इस संकल्प को तोड़ देना पड़ा कि युद्ध भूमि में वह हथियार नहीं उठाएंगे। लेकिन असल में वह एक लीला थी, जिसे भीष्म भी समझ रहे थे, कि कृष्ण का वह नाटक वास्तव में अर्जुन को प्रेरित करने के लिए था, जो गीता का पूरा संदेश सुन लेने और ईश्वर का विराट रूप देख चुकने के बावजूद पूरे मनोयोग से युद्ध के लिए तत्पर नहीं हो पा रहा था। तो कृष्ण की इस लीला से दो उद्देश्य हल हुए -पहला, भीष्म की आखिरी इच्छा पूरी हुई और वह कृष्ण के इसी रूप को अपने हृदय में बसाकर मृत्यु को वरण करने की दिशा में अग्रसर हो गए। और दूसरा, कृष्ण को अपना संकल्प तोड़कर अस्त्र उठाते देखकर अर्जुन के मन में शेष रहा मोह भी टूटा और वह पूरे मनोयोग से युद्ध में प्रवृत्त हुआ।
"तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निर्माण को हमेशा भगवान चाहिए
और इसके लिए इनसान का बलिदान चाहिए"
महाभारत का उत्तरदायित्व पूरा कर लेने के बाद कृष्ण ने खुद इस पर विचार किया और उन्होंने खुद भी अस्त्र त्याग दिया। उन्होंने यह भी निश्चय किया कि पुनर्निर्माण के लिए इनसान का बलिदान नहीं, बल्कि इनसान का सुधार चाहिए और इसी मकसद से उन्होंने फिर बुद्ध के रूप में अवतार लिया और उन्होंने केवल अपने उपदेशों से शांति और धम्म का प्रचार किया तथा आजीवन पूर्ण अहिंसा का पालन किया। हालांकि वह उपदेश के द्वारा इनसान को बदलने की कोशिश को भी एक तरह की हिंसा ही मानते थे और मौन ही रहना चाहते थे, लेकिन उनसे बोलने के लिए इतना अनुरोध किया गया कि उन्हें बोलना पड़ा।
सुनीता जी..
आपका प्रश्न जायज है और रोष भी। यह कविता महाभारत की घटना का केवल उल्लेख नहीं है, अपितु इस घटना से धर्म और राजनीति को साथ रख कर समझने का प्रयास है। यहाँ इन भावों के साथ भीष्म और कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन न जोडें..।
भीष्म धर्म को ले कर भ्रमित ही रहे आजीवन, उन्होनें हस्तिनापुर के सिंहासन को ही धर्म माना, और यह भ्रम टूटा युद्ध भूमि में ही। महाभारत यदि आप पढें तो ठीक इस घटना के पूर्व जिसका चित्रण कविता में करने का मैने प्रयास किया है, दुर्योधन नें उनके धर्म और निष्ठा को ही ललकारा था, फिर वे इतने उग्र हो उठे कि उस दिवस के युद्ध में कोई भी उनके सम्मुख नहीं टिका...मानव और ईश्वर में यही फर्क होता है जो कि भीष्म और कृष्ण में था। इतिहास हमें विवेचना की स्वतंत्रता देता है जिससे हम अतीत की भूलों को वर्तमान के दृष्टिकोण से देख सकें। ईश्वर से भी प्रश्न होने चाहिये...आखिर वर्तमान को भी उस पथ पर चलने का मार्ग दर्शन मिले। आपके प्रश्नों नें उत्साहित किया है कि आपने रचना को न केवल पढा बल्कि गंभीर विवेचना भी की है..धन्यवाद।
*** राजीव रंजन प्रसाद
Mahabharat ka yudhha dharma-yudhha tha,isliye dharma aur rajneeti ke anek examples Mahabharat mein humein milate hain.
In my opinion, Itihas aur Puran se vartaman ne sikhana hai,jo kuch galatiyan hui ho,unhe hum na dohrayen.
I agree with -
तुम्हारी इस धरती को आवश्यकता है कृष्ण
पुनर्निमाण को हमेशा भगवान चाहिये.
But again, kis rupmein Bhagwan awatar lenge, shayad hi koyi bata sakega. Bahot prashn hain,jo anuttarit rah jate hain.
Aapki kavita hamesha kuch na kuch prashna present karati hai.
कभी ऍक लेख पढ़ने को मिला था "महाभारत की ऍक सॉझ"। वह दु्र्योधन-पांडव संवाद था। उसमे भी कुछ इसी तरह के प्रश्न उठाये गये थे, इतिहास लिखवाने का सौभाग्य युधिष्ठिर को मिला, क्या इसी कारण पांडव नायक बने और कौरव खलनायक, क्या इसी कारण सुयोधन का नाम तक दु्र्योधन लिखवा दिया गया। ऍसा नया कोण इस कविता मे पढ़कर वैसा ही आनंद फिर से प्राप्त हुआ है, अति उत्तम।
maine pahile bhi mahabharat ke kuch lekh padhe the
aaj fir se unko yaad karna aaur aapke vichar ko padhna achha laga
पुनर्निर्माण के लिये भगवान और और हर नये भगवान के लिये इंसानी बलिदान हमेशा से दिया जाता रहा है भाईसाहब।
आप आंदोलनकारी कब से हो गये।
हर बार नये रंग दिखाते हैं साहब, फूलों से खोजे हैं, कि सतरंगी दबा रखा है।
बडी सटीक और समयाकूल कविता है।
देवेश वशिष्ठ "खबरी"
dharm aur rajniti ek sath nahi rahte.rajnitika ek hi dharm hhota hai lok hitay,,logoke hit ke liye jo kuchh bhi kiya jaye vo hi dharm hai, manushya dharm ke dayrome unhe bandha nahi jata.,par ye to theory ki bat maine kahi,,,puri tarh se rajnitiko samznewale aur us ke path pe chalnewaloki bat,,aajkal ki rajniti ya rajnitigya ki nahi.rajdharm ram se sita tyag bhi karva sakta hai,,,
राजीव जी,
यह मेरा प्रिय विषय है, इसलिये शायद ज्यादा कहना चाहूँ, पर टंकण इतना सरल नहीं है. अतः संक्षेप में कहता हूँ.
प्रथमतः तो मुझे यह गद्य लगा, कविता नहीं. क्षमा चाहूँगा, छंद आवश्यक नहीं हैं पद्य के लिये, पर यदि हम इसमें से विराम चिन्हों को हटा दें और गद्य के तौर पर लिख दें तो यह गद्य जैसा ही लगेगा.
विचार के तौर पर तो मैं बिलकुल ही नहीं सहमत हो पाऊंगा. दुर्योधन ने अगर कृष्ण को माँग लिया होता तो क्या कृष्ण उस पक्ष से युद्ध कर लेते? क्या वे उस पापी का पक्ष ले लेते जो बाल्यकाल से पाँडवों को मारने का प्रयत्न करता रहा, जिसने द्रौपदी का बीच सभा में सम्पूर्ण कुल के सामने ऐसा वीभत्स अपमान किया? सिर्फ़ युद्ध के परिणामों के अनुसार इतिहास लिखे जाने की ही बाते नहीं है. दुर्योधन के संपूर्ण जीवन को देखिये.
मुझे तो लगता है कि श्रीकृष्ण के इस एक कर्म में अनेक तार जुड़े हुए हैं.
प्रथम, वे यह बताना चाह रहे थे कि कोई भी प्रतिज्ञा तभी तक सार्थक है जब तक वह धर्म की रक्षा करती है. भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा और उसकी अखंड पालना का अहंकार भी रहा होगा. उस अहंकार की निरर्थकता उन्होंने जता दी. यही नहीं, वे भक्तवत्सल भी हैं. भीष्म का हठ था कि मैं हरि को शस्त्र ग्रहण करने पर बाध्य कर दूँगा.
उन्होंने वह हठ पूरा कर दिया. अपनी प्रतिज्ञा के सामने उन्होंने भक्त की प्रतिज्ञा का मान रखा.
वे अर्जुन को उत्तेजित भी करना चाहते होंगे, ताकि वह मन लगा कर युद्ध करे.
इसके अतिरिक्त, श्रीभगवान के हाथों मृत्यु भी दुर्लभ है. फिर, उन्होंने अपने हाथों से उन्हें ही मारा है जिन्होंने उनकी विरोधा-भक्ति करी थी. भीष्म इस वर्ग में तो नहीं आते. शायद इसीलिये श्रीहरि रुक गये. बाकी तो वे ही जानें.
shishir
सारा दोष मेरी अकल का ही है, वरना एक दो बात मे ही न समझ आ जाती यह कविता, और फ़िर अकल ही तो है कि कविता से मजेदार(अभद्रता...किसी भी शब्द मे हो सकती है,कहीं भी हो सकती है), तो मजेदार वर्तालाप पढने को मिला, और फ़िर कहीं कविता तक कुछ पहुंच बन पायी।
राजीव जी इस कविता से चॊंकाते हैं, और उनकी कही एक बात याद आती है कि, हिन्दी युग्म पर उनकी अधिकतर कवितायें काफ़ी पुरानी हैं...तो क्या अब राजीव ऐसा लिखने लगे हैं, भावप्रवण कवि, व्याख्याओं और तात्पर्यों मे फ़ंसने को बढ़ रहा है...इसे कवि का व्यक्तिगत निर्णय मान लेने भर से काम नहीं चलेगा...कवि कहता है कि कहीं ऐसी ही कविता पढ कर इस कविता का लेखन हुआ, अच्छा सन्केत है..स्वागत है प्रेरित रचनाओं का , और खास कर उन कवियों को सधुवाद जो यह स्वीकार कर लेते हैं...राजीव बधाई के पात्र हैं।
राजीव की कविता, प्रश्न उठाने से कहीं अधिक, वातावरण इतिहास और तात्कालिक भविष्य और आज की धर्म और राजनीति के माध्यम से पड़्ताल की कोशिश है...प्रश्न जनित चिन्तन से कहीं अधिक, चिन्तन पाठक स्वयं करता चलता है।
पर यह सब तब जब पाठक ससुर पढ पाये..जोझिल है, बोझिल होती हैं ऐसी कवितायें, अपने ही चिन्तन से दबी, अपने ही तात्पर्यों से घिरी..राजीव से आशा है, ऐसी प्रेरित कविताओं से दुर रहकर, अपना जनप्रिय स्वाद फ़िर चखायें..
.कविता के लिये बधाई...
दो वाक्य मैंने पढ़े थे शायद आपके कुछ सवालों के उत्तर उनमें हों-
१॰ वैदिक हिंसा हिंसा न भवति (वैदिक हिंसा हिंसा नहीं होती, मतलब धर्म की स्थापना के लिए हिंसा तक ऊचित है)
२॰ सठे साठयम् समाचरेत (दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार भी सदाचार की परिधि में आता है)
वैसे आपकी कविता चौंकाती है, कई जगह। कई अनुउत्तरित प्रश्न उठाती है। और शायद कवि के रूप में आपकी यह सफलता है।
बेहतरीन रचना।
अपनी बात को बहुत ही अच्छी तरीके से कह पाये हैं।
मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि कभी-२ शांन्ति के लिये हिंसा का सहारा लेना पड़ जाता है।
मुख्य बात यह है कि आप की नज़र में किस चीज़ की क्या परिभाषा है।
"मैं विजेता था उस क्षण
मेरे किसी वाण के उत्तर अर्जुन के तरकश में नहीं थे
तुम्हारा रथ और ध्वज भी मैनें क्षत-विक्षत किया था
और मेरा कोई भी वार धर्मसम्मत युद्ध की परिभाषाओं से परे नहीं था।
फिर किस लिए केशव तुमने मुझे महानता का वह क्षण दिया।"
"अब सोचता हूँ कि दुर्योधन ने तुम्हें माँगा होता, न कि तुम्हारी सेना
तो क्या द्वेष के इस महायुद्ध का खलनायक युधिष्ठिर होता?"
"तो भगवन, सिर्फ एक राजा कहलाते तुम
और इतिहास अर्जुन को दिये तुम्हारे उपदेशों पर से
रक्त से धब्बे नहीं धोता।"
इतिहास पर एक ऎतिहासिक रचना।
बधाई स्वीकारें।
वाकई आपने एक पुरातन प्रश्न को फिर से जीवन दे दिया|
हां कई पाठक इसका आनंद उठाने से वंचित हो सकते है कारण इतिहास के प्रति अक्षान जो आजकल सामान्य हो गय है
ये तो निश्चित ही था की जहां क्रुष्ण खडे हो उसी पक्ष की विजय होगी और यदी दुर्योधन की मति भ्रष्ट न होती तो वो विजेता होता और इतिहास विजेता की भांति उसका गुणगाण करता | भीष्म के प्रश्ण भी पाठक को विचार करने को मजबुर करते है की क्यो एक देवता अपना प्रण भुल बैठा
निश्चित ही ये एक सुन्दर और साथ ही एक ऐसी कविता है जो इतिहास के प्रश्णो को जिवित करती है |
इसके लिये आपका अभीनंदन !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)