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Sunday, April 15, 2007

आओ जेहादियों


साठ सालों से सभी नोचते आ रहे हैं,
आ , तू भी आ
आ ,मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले,
ओ , धर्म के रखवाले,
इंसानियत के ठेकेदार,
इस जहां से
मिटती मानवता की कहानी निचोड़ ले।

मेरे जले-भुने घर से,
बुझ चुके चुल्हे से,
कब की लूट चुकी अस्मत से,
कब की फूट चुकी किस्मत से,
उम्मीदों के कब्र से,
मेरे अंतहीन सब्र से,
मेरे यहाँ पलते-
रोज के मुहर्रम की कुर्बानी निचोड़ ले।
आ, मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले।

सियासती जंग में,
ढले, ऎ काफिर!
जम्हूरियत के रंग को ,
छले ,ऎ काफिर!
हमारे जिस्मों से सने-
तुम्हारे सपने हैं तेरे सामने,
अब, क्या कहूँ तुझे,
आ , मेरा बुलावा है तुझे-
आ, जमीं पर खुदा की निशानी निचोड़ ले,
मिटती मानवता की कहानी निचोड़ ले।
आ......... हमारी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

विश्व दीपक जी..
आप पैनी कलम से लिखते हैं। असाधारण रचना है। भीतर की खीज भाषा को तल्ख बना ही देती है, खीज, कुंठा और घुटन को सिहराने वाले शब्द दिये हैं आपने।

"आ , तू भी आ
आ ,मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले"

"मेरे जले-भुने घर से,
बुझ चुके चुल्हे से,
कब की लूट चुकी अस्मत से,
कब की फूट चुकी किस्मत से,
उम्मीदों के कब्र से,
मेरे अंतहीन सब्र से,
मेरे यहाँ पलते-
रोज के मुहर्रम की कुर्बानी निचोड़ ले।
आ, मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले"

इन पंक्तियों से केवल पत्थर की आँख नम न होगी।

"आ, जमीं पर खुदा की निशानी निचोड़ ले"

आपकी यह कविता चिंगारी है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Gaurav Shukla का कहना है कि -

अद्भुत हैं आप. आपकी लेखनी, आपका लेखन

"आ , तू भी आ
आ ,मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले"

कितना गहन सोच लेते हैं आप...अद्भुत
प्रभु का धन्यवाद कि आपसे परिचय हुआ


सस्नेह
गौरव

Anonymous का कहना है कि -

सुन्दर कृति, अंतर्मन की पीड़ा उबल रही है आपकी इस रचना में...

रोज के मुहर्रम की कुर्बानी निचोड़ ले।
आ, मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले

एक-एक शब्द झकझोर देने वाला है। बधाई!!!

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

सच मे आपने अपनी कविता मे अच्छा प्रहार किया है। आज कर लोग धर्म के नाम पर कुकर्म करने लगे है।

साधुवाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

तन्हा जी,

हिन्दी के तमाम ब्लॉगों पर पिछले २ हफ़्तों से इंसानायित के दुश्मनों के बारे में लिखा जा रहा है, परंतु मुझे किसी भी विचार ने इतना प्रभावित नहीं किया, जितना कि आपकी इस कविता ने। पूरे मन से लिखी हई है, यह कविता। बहुत खूब!!

ghughutibasuti का कहना है कि -

बहुत अच्छा लिखा है । वैसे आपको आवाहन की आवश्यकता नहीं होगी । ये बिन बुलाये ही अपना काम करते रहेंगे ।
घुघूती बासूती

सुनीता शानू का कहना है कि -

वाह विश्व दिपक जी क्या खूब लिखा है
आ ,मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले,
ओ , धर्म के रखवाले,
इंसानियत के ठेकेदार,
इस जहां से
मिटती मानवता की कहानी निचोड़ ले।
बिलकुल सत्य लिखा है बड़ी अद्भुत रचना है काबिले तारीफ़ है
सुनीता(शानू)

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुंदर और अर्थपूर्ण रचना है यह आपकी ...एक एक लफ्ज़ सच को बयान करता है

आ, जमीं पर खुदा की निशानी निचोड़ ले,
मिटती मानवता की कहानी निचोड़ ले।
आ......... हमारी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले।

पंकज का कहना है कि -

तन्हा साहब, आप का दर्द पूरे हिन्दुस्तान का , बल्कि पूरी दुनिया का दर्द है,जिसे आप ने बख़ूबी बयान किया है।
बस आवश्कता है इस दर्द को पाल कर रखने की; तभी हम इसका निदान कर सकेंगे।

Anonymous का कहना है कि -

बहुत अच्छा !!!

Anonymous का कहना है कि -

These are the best lines
मेरे जले-भुने घर से,
बुझ चुके चुल्हे से,
कब की लूट चुकी अस्मत से,
कब की फूट चुकी किस्मत से,
उम्मीदों के कब्र से,
मेरे अंतहीन सब्र से,
मेरे यहाँ पलते-
रोज के मुहर्रम की कुर्बानी निचोड़ ले।
आ, मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले।

aapne kavita dimaag par gehra prabhaav kar rahi hai.Its like a volcano erruption.good keep writing

Unknown का कहना है कि -

Bahut khoob tanha ji....

Vikash का कहना है कि -

मैं तो बस यूँ ही टहलते टहलते इधर आ गया था और आते ही इतनी उत्कॄष्ट देख कर दिल बाग-बाग हो गया.
"आ, मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले।"

तन्हा जी इतनी अच्छी कविता देकर आपने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा, अब मुझे इस ब्लोग पर प्रकाशित सभी कवितायें पढनी होंगी.

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