नास्ति विद्या समं चक्षु-
तुम्हें ज्ञात न हो शायद,
पर सत्य है यह-
जब से हर कोई विद्यार्थी हुआ है,
सारे मूल्य बदल गये हैं,
कल का बेमोल धन
अब अमूल्य हो गया है,
कले के अबोले सपने
अब बड़बोले हो गए हैं,
कल की अलख चाहत
अब खुलेआम चहचहाती है,
अब तो आँसुओं की जगह
ढाढस बंधाते बोल बरसते हैं-
अब तो उजियारे ने भी अपना
दर्पण बदल लिया है,
दो गंवार आँखें-
एक अबोध में टांके थे उसने-
उस नासमझ शिल्पी ने,
उजियारे ने उसे भी उसकी
औकात बता दी है,
निकाल फेंका है उन जाहिल टुकड़ों को,
अब तो विद्या सजती है यहाँ,
हमारे चेहरों पर,
दो कोटरों से झांकती है,
दृश्य और अदृश्य में भेद कराती है।
सच है-
विद्या के समान कोई चक्षु नहीं।
परंतु तुम-
मुझे कभी-कभी तुम्हारे लिए
अफसोस होता है,
अब तक जाहिल टुकड़े संभाल रखे हैं
तुमने,
कब तक रहोगी यूँ हीं-
बुभुक्षु--
कब तक ख्वाबों के निवाले
इन भूखों को दोगी,
उजाले ने तुम्हारे लिए भी सहेजे हैं-
दो जागृत आँखें,
बुद्ध हो जाओगी तुम,
दुनियादारी जान जाओगी,
बस विद्यार्थी बन जाओ,
टाँक लो अपने कोटरॊं में .........संस्कृति का दर्पण।
पर मैं जानता हूँ-
तुम पर मेरी बातों का
कोई असर न होगा-
तुम वही अनपढ,गँवार रहोगी
और................
और मुझे यही अफसोस रहेगा।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी, अच्छा न्याय किया है। आपने अपनी लेखनी के साथ। वास्तव मे उच्च कोटि की रचना।
एक बात जो मैंने महसूस की है-
जब से पढ़ने लगा हूँ मैं किताबें,
हो गया हूँ डरपोक,
सोचता हूँ कि झूठ के ख़िलाफ
गर आवाज़ उठाता रहा
कब तक चल पायेगा
यह पढ़ने-लिखने का नाटक?
विश्वदीपक जी..
आपकी कविता उच्च कोटि की है। पढते ही आशावादी हो उठा कि आप जैसे कवि हिन्दी कविता का पुराना दौर लौटा लायेंगे।
अब तो आँसुओं की जगह
ढाढस बंधाते बोल बरसते हैं-
अब तो उजियारे ने भी अपना
दर्पण बदल लिया है,
उजाले ने तुम्हारे लिए भी सहेजे हैं-
दो जागृत आँखें,
बुद्ध हो जाओगी तुम,
दुनियादारी जान जाओगी,
बस विद्यार्थी बन जाओ,
आपकी लेखनी को नमन..
*** राजीव रंजन प्रसाद
विश्वदीपक जी,
जीवन में दो चीजे है.. पढाई और गुणाई...
पढना शायद इतना जरूरी नही है जितना गुणना.. मुझे इतेफ़ाकन ऐसे कई लोग मिले जो पढे लिखे नही थे.. परन्तु जब मै उनके सम्पर्क में आया तो मुझे लगा... शायद मैं ही अनपढ रह गया..
रचना का मूल भाव बहुत सुन्दर है... परन्तु शिल्प की थोडी कमी लगी..मै भी आजकल इसी शिल्प को सिखने में लगा हू और मैने राकेश खण्डेलवाल जी को गुरु मान लिया है...
इसे आलोचना न समझे..सुझाव की तरह ले यही निवेदन है
मुझे खुशी होगी ,अगर मैं जीवन भर विद्यार्थी रहूँ। बस, पढ़े गये हर एक विषय का प्रयोग भी करने को मिलता रहे।
इन पंक्तियों के कया कहने-
दो जागृत आँखें,
बुद्ध हो जाओगी तुम,
दुनियादारी जान जाओगी,
बस विद्यार्थी बन जाओ,
इस रचना के माध्यम से आपने विद्यार्थी जीवन पर अच्छा कटाक्ष किया है,...रचना के भाव सुन्दर है मगर कहीं कुछ कमी सी लग रही है,...मै तो अनपढ हूँ बता नही पाउंगी,...
सुनीता(शानू)
bas itnaa hi aaj
waah,,waah!!
bas itnaa hi aaj
waah,,waah!!
bahut sundar bhav hai deepak ji.. aur samay ke saath aapki shaili me nikhar aa raha hai.. aur aata rahega...
sundar
मज़ा आ गया, वाह,
अंतिम पंक्ति ने तो झंझोर कर रख दिया है।
परंतु तुम-
मुझे कभी-कभी तुम्हारे लिए
अफसोस होता है,
अब तक जाहिल टुकड़े संभाल रखे हैं
तुमने,
कब तक रहोगी यूँ हीं-
बुभुक्षु--
कब तक ख्वाबों के निवाले
इन भूखों को दोगी,
उजाले ने तुम्हारे लिए भी सहेजे हैं-
दो जागृत आँखें,
बुद्ध हो जाओगी तुम,
दुनियादारी जान जाओगी,
बस विद्यार्थी बन जाओ,
टाँक लो अपने कोटरॊं में .........संस्कृति का दर्पण।
पर मैं जानता हूँ-
तुम पर मेरी बातों का
कोई असर न होगा-
तुम वही अनपढ,गँवार रहोगी
और................
और मुझे यही अफसोस रहेगा।
आपकी यह पंकितयां किस संदर्भ में कही गयी है कुछ स्पष्ट नही हो पाया
यह एक औरत की कल्पना पर व्यंग्य है या उसके भोलेपन पर कुछ कहा कहा गया है ???
की वो आज की दुनिया में भी अपनी ही किसी सोच और ख़वाब में रहती है .तभी वो अनपढ़ और गँवार है अभी तक ?????????
रंजु जी, आपने मेरी कविता को दूसरी तरफ से ले लिया । शायद आपने पूरी कविता नहीं पढी है। या फिर केवल दूसरे paragraph को हीं आपने सही से पढा है।
मेरी कविता किसी औरत पर व्यंग्य नहीं है। यह आज के शिक्षा-व्यवस्था पर व्यंग्य है।
इस कविता के मूल में एक प्रेमी है जो अपनी प्रेमिका से बात कर रहा है। उसका कहना है कि देखो मैं एक पढा-लिखा इंसान हूँ ,इसलिए मैंने भगवान के दिए अपने नेत्र बदल लिए हैं । अब विद्या हीं मेरी आँखे हैं। अब मैं ज्यादा जानकार हो गया हूँ, दुनियादारी जान ली मैंने।
विद्यार्थी होने के नाते अब वो प्रेमी हर चीज का मोल-भाव करने लगा है। उसने प्रेम को भी एक खरीद-बिक्री की वस्तु माना है।
परंतु उसे इस बात का अफसोस है कि उसकी प्रेमिका अब तक वही अपने सपनों में उलझी है। वादों की दुनिया में जीती है। कोई दुनियादारी नहीं जानती ।
इन वाक्यों के माध्यम से मैंने यह कहना चाहा है कि अभी तक वह अपने प्रेम से इमानदारी बरतती है। तनिक भी इस रंग-बिरंगी दुनिया का उस पर कुप्रभाव नहीं पड़ा है।
आप जरा फिर से मेरी इन पंक्तियों पर ध्यान दें , आपको महसूस होगा कि मैंने नारी पर व्यंग्य नही किया है, अपितु इस तथाकथित पढे-लिखे संसार पर व्यंग्य किया है। नारी को मैंने एक ऊँचा दर्जा दिया है। शायद कहने में मुझसे थोड़ी कमी रह गई , इसलिए बात साफ नहीं हो सकी।
जब से हर कोई विद्यार्थी हुआ है,
सारे मूल्य बदल गये हैं,
कल का बेमोल धन
अब अमूल्य हो गया है,
कले के अबोले सपने
अब बड़बोले हो गए हैं,
कल की अलख चाहत
अब खुलेआम चहचहाती है,
अब तो आँसुओं की जगह
ढाढस बंधाते बोल बरसते हैं-
दो गंवार आँखें-
एक अबोध में टांके थे उसने-
उस नासमझ शिल्पी ने,
उजियारे ने उसे भी उसकी
औकात बता दी है,
कब तक ख्वाबों के निवाले
इन भूखों को दोगी,
उजाले ने तुम्हारे लिए भी सहेजे हैं-
दो जागृत आँखें,
बुद्ध हो जाओगी तुम,
दुनियादारी जान जाओगी,
टाँक लो अपने कोटरॊं में .........संस्कृति का दर्पण।
मैं उम्मीद करता हूँ कि अब आप मेरी बात समझ जाएँगीं।
वाह
तनहा जी आपकी शैली,भाषा और भावों के प्रभावी चित्रण का तो मैं कायल रहा हूँ
उच्चस्तरीय रचना
अनुपम
हार्दिक बधाई
विलम्ब से टिप्पणी करने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ यद्यपि पढ मैंने तुरन्त ली थी
सस्नेह
गौरव
तनहा जी सही कहा है आपने ये जरुरि नहि की कवि जिस भाव से कविता लिख रहा है हर कोइ समझ भी पाए मगर फ़िर भी इतना कहूंगी आपकी शैली में कुछ ऐसा परिवर्तन करें कि हर व्यक्ति विशेष की समझ में आ जाये,आशा है आप मेरी इस बात को अन्यथा नहीं लेंगे। लेकिन हाँ जिस रूप में आपने कविता कि समिक्षा की है वाकई काबिले तारिफ़ है,..
सुनीता (शानू)
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