एक रात,
भगवान,
जब सारे सरोवर समाप्त हो चुके थे
और मदिरालय बेहोश होकर खो चुके थे,
मैंने प्यास बुझाने के लिये तुम्हारा द्वार खटखटाया,
उत्तर का एक कतरा भी बाहर ना आया,
तुम शायद सो रहे थे
या अपने किसी नादान बच्चे की मौत पर रो रहे थे,
या किसी चमत्कार की बाट जोह रहे थे,
पर रोना, सोना या बाट जोहना तो ईश्वरीय कृत्य नहीं हैं,
गीता कहती थी,
कहीं ऐसा तो नहीं,गीता झूठ ही कहती थी,
और मेरी आँख,
जो हर काम के बाद
परिणाम की बजाय,
अगले काम पर लगी रहती थी,
इसीलिये हर रात देर तक जगी रहती थी,
हर प्यास,
जो तुम्हारे बन्द दरवाजे से टकराकर,
आँखों से बहती थी,
कहीं ऐसा तो नहीं,
तुम्हारी हार कहती थी,
वही प्यास तुम्हारी जुबान भी सहती थी,
और
असफल होकर तुमने,
एक स्रोत तलाशने के लिये हमें बनाया,
और एक पराजित भगवान,
पराजित इंसान ही बना पाया,
हर पुकार के उत्तर में,
तू सोता, रोता या बाट जोहता रहा
और धरती पर,
देर-अंधेर का झूठा शोर होता रहा,
अब अगली बार,
मनचली प्रेमिका की तरह,
वचन देकर ना मुकरना,
ऐसा करे तो मुझ पर
किसी अधिकार की उम्मीद मत करना,
तेरे रोने, सोने या बाट जोहने वाले,
तुझसे डरते होंगे,
हम कर्म करेंगे तो फल छीनेंगे,
झूठे रचयिता ही नतीज़ों से मुकरते होंगे.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी रचना है.
भगवान से भिडने में वास्तव में बहुत मजा आता है.
क्योंकि वही तो है, जिसे जो कहो चुप सुन जाता है.
अपने बाप पर बिगडते हुए मैंने कुछ और मह्सूस किया
पर जब मेरा बच्चा पूछता है कि मुझे पैदा क्यों किया.
तब मुझे बाप होने, और औलाद होने का फर्क नजर आता है.
भगवान से भिडने मे वास्तव मे बहुत मजा आता है....
सिर्फ कविता के लिये ईश्वर से लडना उचित है.. परन्तु वास्तव में हम मात्र अपने सुखों के लिये रोते हैं.. कोई दुख हो तो कह्ते हैं .. हे भगवान तूने ये क्या किया मगर ... जब खुश होते हैं तो उसे अपनी उपलब्धि मान लेते हैं... जिसने ये सारा ब्रह्मांड रचा है वह पराजित कदापि नही हो सकता... इसे आलोचना न समझे... मेरा सोचा हुआ दर्शन समझ लेने की कृपा करें
मनचली प्रेमिका की तरह,
वचन देकर ना मुकरना,
:)
अच्छा लिखा है.
गौरव जी, बात तो आप की सौलहों आने ठीक है।
रचयिता पर मुझे भी काफी दिनों से शक़ है।
फिर से एक सुन्दर रचना..एक सुन्दर दर्शन भी:
"गीता कहती थी,
कहीं ऐसा तो नहीं,गीता झूठ ही कहती थी,
और मेरी आँख,
जो हर काम के बाद
परिणाम की बजाय,
अगले काम पर लगी रहती थी"
"असफल होकर तुमने,
एक स्रोत तलाशने के लिये हमें बनाया,
और एक पराजित भगवान,
पराजित इंसान ही बना पाया"
"हम कर्म करेंगे तो फल छीनेंगे,
झूठे रचयिता ही नतीज़ों से मुकरते होंगे"
*** राजीव रंजन प्रसाद्
Gauravji aap bahut aacha likhte hain.har bar kuch naya padhne ko milta hai.
bhagwan se mai bhi aise anginat sawaal poochti raheti hu....par koi jawaab nahi aata...
काव्य के लिहाज से एक अच्छी रचना है। हर पराजय के बाद मानव भगवान को याद करता है, उसे दोषी ठहराता है। यह मानव मन की एक सामान्य प्रतिक्रिया है। गौरव जी ने इसे बहुत सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है। हालाँकि दर्शन के लिहाज से में गौरव जी से सहमत नहीं हूँ। माना कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, पर क्या हम किसी भी धर्म या धार्मिक पुस्तक को अंतिम मान सकते हैं। सत्य या ईश्वर की खोज यदि इतनी ही आसान होती तो अब तक सब उसे पा चुके होते और शायद सृष्टि का विकास रुक चुका होता। वैसे भी क्या ईश्वर के अस्तित्व को हम सिर्फ अपने लाभ के लिये ही स्वीकारते हैं?
झूठी आस्था की नये ढंग से तर्कसंगत व्याख्या की है कवि ने।
कुछ पंक्तियाँ बहुत कुछ कहती हैं-
कहीं ऐसा तो नहीं,गीता झूठ ही कहती थी,
एक पराजित भगवान,
पराजित इंसान ही बना पाया,
हम कर्म करेंगे तो फल छीनेंगे,
झूठे रचयिता ही नतीज़ों से मुकरते होंगे
मनचली प्रेमिका की तरह,
वचन देकर ना मुकरना,
ऐसा करे तो मुझ पर
किसी अधिकार की उम्मीद मत करना,
तेरे रोने, सोने या बाट जोहने वाले,
तुझसे डरते होंगे,
हम कर्म करेंगे तो फल छीनेंगे,
झूठे रचयिता ही नतीज़ों से मुकरते होंगे.
अच्छी रचना है.... ईश्वर को समझना सच में बहुत मुश्किल है
मनचली प्रेमिका की तरह,
वचन देकर ना मुकरना,
ऐसा करे तो मुझ पर
किसी अधिकार की उम्मीद मत करना,
तेरे रोने, सोने या बाट जोहने वाले,
तुझसे डरते होंगे,
हम कर्म करेंगे तो फल छीनेंगे,
झूठे रचयिता ही नतीज़ों से मुकरते होंगे.
बहुत सुंदर लिखा है, आपने । बधाई स्वीकारें।
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