शाम ढलती रही, मैं गुजरता रहा,
रात ढलती नहीं, मैं गुजरता रहा
रेत पर पाँव थे, दर्द की छाँव थे,
ठौर मिलती नहीं, मैं गुजरता रहा
तुमने देखा नहीं, मैने पूछा नहीं,
कोई टूटा कहीं, मैं गुजरता रहा
ओस की बूँद थी, बंद थी पंखुडी,
गाल पर धार सी , मैं गुजरता रहा
मैने "राजीव" जब, नाव भँवरों को दी,
डूबती है नदी, मैं गुजरता रहा
***राजीव रंजन प्रसाद
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
तुमने देखा नहीं, मैने पूछा नहीं,
कोई टूटा कहीं, मैं गुजरता रहा
ओस की बूँद थी, बंद थी पंखुडी,
गाल पर धार सी , मैं गुजरता रहा
jaane kya-kya charitaarth kiye hain apne , in do chhandon mein.
badhai sweekar karein.
आपकी ग़ज़ल पर भी समान पकड़ है। मज़ा आ गया पढ़कर।
बहुत खूब!!!
No words to say except for you are the best!!!!!
ओस की बूँद थी, बंद थी पंखुडी,
गाल पर धार सी , मैं गुजरता रहा
उत्तम
"गाल पर धार सी , मैं गुजरता रहा"
बहुत सुन्दर राजीव जी
बधाई
तुमने देखा नहीं, मैने पूछा नहीं,
कोई टूटा कहीं, मैं गुजरता रहा
In panktiyon mein puri kavita sameti hai.
Do kadam tum na chale,do kadam hum na chale...song yaad aaya.
kahan se late ho aaise shab, ki aate hain udkar aapke paas aapki bhavnayen shabd bankar?
गज़ल पढने एवं मेरा उत्साह बढाने का धन्यवाद|
Namskar Rajeev Bhai,
Bahut ache.
aap to apni es kivita se to dil ko chu lete hain.
jawab nahi aap ka.
dil se sukriya.
bahut khoobsurat likha hai aapne
"PADHE BINA HAME BHI RAHA NAHIN JATA,
KYA KAHEN KI KUCHH KAHA NAHIN JAATA"
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