(अपने एक ख़ास मित्र "श्री विरेन्द्र सिँह संधु" को दो वर्ष पूर्व लिखे पत्र का एक अंश)
रोज-रोज की इन मुलाकातोँ से
बदनामीँ के सिवा और क्या पाओगे
गिर गए यार गर भूल से कहीँ
पैमाने के माफिक चूर-चूर हो जाओगे
यादे सताएगी जब सारी-सारी रात
भूल पर अपनी फिर तुम पछताओगे
यह यादोँ का कारवाँ ऐसा ही होता है
उतना याद आयेगी जितना तुम भूलाओगे
'ज्योती' का साथ नहीँ रहेगा जब
अँधियारे मेँ तुम कहीँ गुम हो जाओगे
फिर मत कहना बतलाया नहीँ 'गिरि'
मेरी ये पँक्तियाँ बार-बार दोहराओगे
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2 कविताप्रेमियों का कहना है :
बाकि सब ठीक है, यह ज्योति कौन है? :)
संजय भाई के सवाल का जवाब दिया जाये !
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