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Thursday, October 26, 2006

कैसे करूं ? मै स्‍वयं को माफ


इरादा पक्‍का था जीतने का,
कुछ कर दिखाने का,
समय के साथ कदम से कदम मिलाने का,
कल क्‍या था और कल क्‍या होगा,
वक्‍त नही है यह सोचने मे समय गवाने का,
इरादा हो फौलाद जैसा जो असम्‍भव को सम्‍भव कर दे
नही है कुछ भी ऐसा इस जग मे,
कि जिसमे सत्‍य छिपा न हो,
सत्‍य है आधार विश्‍वास का,
विश्‍वास पर टिकी है दुनिया,
मुझ पर विश्‍वास कर रही है।
पर यह क्‍या?
कहां गया दृढ इरादा?
कहां गया वह विश्‍वास?
आज मैने अपने आप से विश्‍वास घात की है
मेरी सजा क्‍या होगी?
और से किया होता विश्‍वासघात,
तो मै माफी मांग लेता
पर स्‍वयं से कैसे माफी मांगू ?
और अपने को कैसे माफ करूं ?
मैने आत्‍म हत्‍या से से बढकार,
आत्‍मा हत्‍या का अपराध किया है।
पुरानी कापियो के पन्‍ने,
इस बात कह गवाही दे रहे है।
तब के के माफी के शब्‍द,
आज फिर से कानो मे कौध रहे है।
वह दिन मुझको याद है जब,
मैने गलती करके,
मन को विश्‍वास मे लेकर,
खुद से क्षमा मांगा था
पर समय बीतते ही बात बीत गई जैसे,
और हर्ष और उन्‍माद के दौर मे,
पश्‍चाताप के आंसू सूख गये
आज फिर से अतीत के पन्‍नो की गवाही ने,
मेरे केस की बन्‍द फाईल को फिर से खोल दिया है।
और मेरी आत्‍मा अपने हत्‍यारे की सजा की मांग कर रही है।
आत्‍म हत्‍या के लिये सजा का विधान है,
पर मुझे आत्‍मा की हत्‍या के लिये सजा क्‍या हो?

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6 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

बहुत खूब!

bhuvnesh sharma का कहना है कि -

प्रमेंद्रजी अच्छा लिखते हैं। बधाई।

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -
This comment has been removed by a blog administrator.
Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

अनुराग जी एवं भुवनेश जी,

आप दोनो को मेरी यह रचना पंसद आई इसके लिये अभार, मुझे तनिक भी अनुमान नही था कि यह कविता किसी को पंसद आयेगी। यह कविता मै बहुत सोचते-2 डाल रहा था और डाल भी दिया किन्‍तु मेरा मन नही माना और मै इसे डिलीट करने आया था।
परन्‍तु आप दोनो के स्‍नेह तथा प्रोत्‍साहन ने मुझे यह कुकृत्य करने से रोक दिया।
आप दोनो को कोटि-2 धन्‍यवाद

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

था इरादा पक्का जीतने का, कुछ कर दिखाने का
बढ़कर संग समय के कदम से कदम मिलाने का

फिर कहो मित्र क्यूँ सोच विचार में डूबे तुम
लेखनी से निकले मोती, इरादे ना बदलो तुम

आत्म हत्या से बड़ी हाँ आत्मा हत्या सही है
सत्य धारा आज फिर जो लेखनी से बही है

करने आए जो कुकृत्य बहूत बड़ा पाप होता
हम जैसे पाठकों के दिलो पर आघात होता

सही समय पर योंही हरदम सदबुद्धि का संचार रहें
लेखनी से तुम्हारी मित्र काव्य गंगा की पोखार बहे

jeje का कहना है कि -

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