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Friday, September 22, 2006

बूढ़ा बरगद


मेरे गाँव का बूढ़ा बरगद
मेरे बाबा के बचपन से ही
कब्र में पैर लटकाए खड़ा है
बाबा नहीं हैं, पर बरगद है
उसका तना
बाबा के पोपले मुँह जैसा हो गया है
आँखों की रोशनी भी कमजोर हो गयी है शायद
तभी रास्ते में पैर पसारे पड़ा रहता है
लम्बी-लम्बी दाढ़ी बढ़ाये
मुलुल-मुलुल ताकता रहता है गाँव की तरफ
गाँव की सारी जवान घसहिनें
तपती दोपहर में जब
इसकी छाँव मे सुस्ताती हैं
आपस में हँसी-ठिठोली करती हैं
दम साधे उनकी बातें सुनता है
बड़ा रसिया है
.......................
पिछली साल बाढ़ नहीं आयी थी
इस साल देखो क्या होता है
.....................
तब?
गाँव वालों की मनौती कौन पुरायेगा?


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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

Pratyaksha का कहना है कि -

वाह ! बहुत ही अच्छी है ये कविता । बहुत बढिया

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

मनीष जी, बहुत सुन्‍दर। मुलुल-मुलुल जैसे ठेठ हिन्‍दी के शब्‍दों को कविता में जीवित रखने के लिए अलग से बधाई।

jeje का कहना है कि -

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