फटाफट (25 नई पोस्ट):

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***सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?


दरहम-बरहम दोनों सोचें
मिलजुल कर हम सब सोचें
जख्म व मरहम दोनों सोचें
घर जल कर राख हो जाएगा
जब सब कुछ खाक हो जाएगा
तब सोचेंगे ?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?

ईंट और पत्थर राख हुए हैं
दीवार-ओ-दर खाक हुए हैं
उनके बारे में कुछ सोचो
जिनके छ्प्पर राख हुए हैं
बे बाल-ओ-पर हो जाएंगे
जब खुद बेघर हो जाएंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?

भूख से मरकर मजबूर मरे हैं
महनतकश मजदूर मरे हैं
अपने घर की आग में जलकर
गुमनाम और मशूहर जले हैं
एक कयामत दर पर होगी
मौत हमारे सर पर होगी
तब सोचेंगे ?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?

कैसी बदबू फूट रही है
पत्ती-पत्ती टूट रही है
खुशबू सेनारज हैं कांटे
गुल से खुशबू रूठ रही है
खुशबू रुख्सत हो जाएगी
बाग में वहशत हो जाएगी
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?

माँ की आहें चीख रही हैं
नन्हीं बाहें चीख रही हैं
कातिल अपने हमसाये हैं
सूनी राहें चीख रही हैं
रिश्ते अंधे हो जाएंगे
गूंगे बहरे हो जाएंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो !आखिर कब सोचेंगे ?

टीपू के अरमान जले हैं
बापू के अहसान जले हैं
गीता और कुरान जले हैं
हद यह है इन्सान जले हैं
हर तीर्थ स्थान जलेगा
सारा हिन्दुस्तान जलेगा
तब सोचेंगे ?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे ?

मित्रो, डॉ० नवाज ‘देवबंदी’ का यह गीत मसि-कागद पत्रिका के अंक १५ [अप्रैल-जून २००२ ] में प्रकाशित हुआ था, मगर क्या हमने सोचने का कष्ट किया?
हम सभी के मन आज आक्रोश से भरे हैं, लेकिन कहते हैं ना public memory is short हम फिर भूल जायें इससे पहले कुछ कदम उठायें
मेरा सुझाव है कि सबसे पहले, इससे पहले कि राजनेता शहीदों की चिताओं पर रोटियां सेकने आ जाएं। हम कदम उठाएं।
पहला कदम- इस हादसे में शहीद हुए पुलिस व सुरक्षाकर्मियों हेतु, हर परिवार हेतु कम से कम एक करोड़ रू इक्ट्ठा कर उन्हे भेजें, कठिन नहीं है यह काम केवल हम शुरू करें। और सरकार कुछ करे ना करे यह काम हमें जनता को करना चाहिये, जिससे राजनेताओं के मुँह पर तमाचा लगे और सुरक्षाकर्मियों का आत्मबल बढ़े। वरना अनेक अमर सिंह [शक्तिसिंह-विभीषण] बनने आ जाएंगे।

श्याम सखा ‘श्याम’