आज बाबा साहेब की 119वीं जयंती है। आज हम उसी दलित-जागरण आंदोलन के अग्रदूत को श्रद्धाँजलि स्वरूप सूरज बड़त्या की एक कविता का प्रकाशन कर रहे हैं।
अयम्मा
सूरज बड़त्या

सूरज बड़त्या दिल्ली में दलित साहित्य और आंदोलन को लेकर लगातार सक्रिय रहे हैं। उन्होंने अपने लेखों और कविताओं के जरिए वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद तथा मैला उठाने की अमानवीय प्रथा की गहरी आलोचना प्रस्तुत की है। 1 जनवरी 1974 में दिल्ली में जन्मे सूरज ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में पीएचडी की है। सम्प्रति- भारतीय दलित अध्ययन संस्थान में सीनियर फेलो और संपादक।
संपर्क- सी-97, रामा पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
+91-98914 38166, +91-99114 38166
अयम्मा!
सूरज बड़त्या दिल्ली में दलित साहित्य और आंदोलन को लेकर लगातार सक्रिय रहे हैं। उन्होंने अपने लेखों और कविताओं के जरिए वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद तथा मैला उठाने की अमानवीय प्रथा की गहरी आलोचना प्रस्तुत की है। 1 जनवरी 1974 में दिल्ली में जन्मे सूरज ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में पीएचडी की है। सम्प्रति- भारतीय दलित अध्ययन संस्थान में सीनियर फेलो और संपादक।
संपर्क- सी-97, रामा पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
+91-98914 38166, +91-99114 38166
एक बात पूछता हूँ तुमसे आज
कितनी सदियाँ बीतती रही हैं
समय करवट लेता रहा है
इतिहास के स्याह रंग की
गवाही में बताओ
तुम्हारी हाड़-तोड़ मेहनत का
क्या सिला मिला?
समय बदला
दुनिया के रंग बदले
नई तकनीकें आईं और
बेहतर दुनिया बनाने की घोषणाएँ होती रहीं
नीतियाँ बनती रहीं
लेकिन
उन घोषणाओं और नीतियों में
तुम कहाँ थी अयम्मा!
तुम्हारे हाथ की झाड़ू
और माथे पर मल की टोकरी क्यों नहीं छूटी?
तुम, तुमसे पहले तुम्हारे पूर्वज
असभ्य इंसानों, गाँवों, शहरों का मल उठाकर
श्रम की गरिमा की चाहत
और
इंसान हो सकने का सपना पाले
चल बसे
और गुम होते चले गये।
क्या तुम जानती हो
तुम्हारे बाद तुम्हारे बच्चे कहाँ होंगे
इस व्यवस्था में
आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या सपना देखती हो तुम
अयम्मा!
सच-सच बताना पूरी बेबाकी और हिम्मत से
कि तुम वाकई नहीं जानती
ये असभ्य इंसानी नस्लें
और समाज
तुम्हारे श्रम, सपनों
और चाहतों के हत्यारे हैं!
क्या तुम्हें याद है अयम्मा
जब पहली बार तुम्हारी नन्हीं उंगलियों ने
झाड़ू और टोकरी को थामा था
उम्र क्या थी तुम्हारी
इतिहास के उस खुरदुरे समय में
तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ
माँ के साथ-साथ झाड़ू लगाते छिल गई थीं
उसी खुरदरे समय में
ये असभ्य इंसानी नस्लें
तुम्हारे माथे पर टोकरी देखकर
नाक-भौं सिकोड़ते हुए भी
अचंभित हो जाया करते थे।
तुम्हारी माँ ने तो कभी नहीं चाहा था
कि तुम भी मल उठाओ
उसने तो तुम्हारे हाथ ने
कलम देनी चाही थी
पर वह ऐसा कर नहीं पाई थी
इसके लिए क्या तुम्हारी माँ दोषी है अयम्मा
या फिर यह समाज ही ऐसा था
जिसने कलम की जगह झाड़ू
और बस्ते की जगह टोकरी को
तुम्हारी तकदीर बना डाला!
इसी ने, इस समाज ने ही
गाँवों और शहरों की गंदी बस्तियों
और मल-मूत्र के पेशे को
पूर्वजों की विरासत कहकर
तुम्हारे लिए ऐसी पाठशाला बनाई
जहाँ कलम नहीं थी
अक्षर नहीं थे
व्याकरण नहीं था
जहाँ सिर्फ जुसुप्पा से बजबजाती बारह खड़ी
और घृणा से भरी हुई भाषा थी
उत्पीड़न का एक अनकहा अनुशासन था
तुमने वहीं सीखा था श्रम का ऐसा पाठ
जिसकी कद्र करने वाला
कम से कम इस दुनिया का
कोई भी ग़ैरदलित
मार्क्स नहीं बन सकता था।
अयम्मा!
क्या तुम्हें याद है तरुणाई के दिन
जब तुम्हारे ताम्बई चेहरे से
लावण्य टपकता था
बसंत की कोंपले फूटती थी
और तुम्हारी आँखों में
सपनों का मुक्त आकाश चमकता था
श्रम ने गढ़ा था तुम्हारे शरीर को
जहाँ बाघिन की सी गर्विली चाल में
हिरनी की सी चपलता भी चपलता भी
चली आई थी
और हवा भी छूकर तुम्हें
अठखेलियाँ करती थीं।
अयम्मा!
एक बात सच-सच बतलाना
क्या तुम्हारे सपनों में
कोई राजकुमार नहीं आया था
कभी भी
घोड़े पर सवार होकर
सुना है अयम्मा
अपनी तरुणाई के दिनों में तुम
बहुत बहादुर थी
मैंने तो यहाँ तक सुना है
कि एक बार किसी ठाकुर ने
भेड़िया बनकर नोंचना चाहा था तुम्हें
लेकिन तुमने उसे उठाकर
धड़ाम से ज़मीन पर दे मारा था
कितना बवाल मचा था
कि एक भंगन ने
ठकुराइशी मूँछे नोंच डाली!
और अयम्मा
वह दिन तुम कैसे भूल सकती हो
दूर गाँव से आया था तुम्हारा दूल्हा
कितनी घबरा गई थी तुम तब
और उसी घबराहट में
भैया कैसे हो?- कह दिया था अपने दूल्हे को
और गूँज उठे से ठहाके
इस कोने से उस कोने तक
मैं एक बात पूछता हूँ
तुम तो बचपन से ही
संघर्षशील, निडर, विद्रोही और मेहनती रही हो
सभी कुछ तो था तुम्हारे भीतर
फिर क्यों चुपचाप मान लिया था तुमने
असभ्य समाज और जारज कोख से जन्मी
मलमूत्र उठाती परम्परा को
सास के हिस्से से
तीस घर मिले थे तुम्हें मुँह दिखाई में
यह तीस घर ही तुम्हारी जायदाद थे?
अयम्मा!
अब तो तुम्हारी बेटी शारदा भी बड़ी हो गई है
वह भी तुम्हें विरासत में मिले
मलमूत्र को उठायेगी
तुम उदास क्यों हो गई
रोती क्यों हो
तुमने भी तो अपनी माँ
और सास से विरासत में मिला पेशा सम्हाला था
शारदा को इसने में
आने से क्या हो जायेगा
अरे-अरे
तुम मौन क्यों तोड़ती हो
ये तुमने शारदा के कान में क्या कहा है
लो शारदा ने भी झाड़ू और टोकरी उठा ली
लो उसने तो मलमूत्र रख लिया है टोकरी में
लेकिन यह शारदा जा कहाँ रही हैं
यह रास्ता तो खतरनाक है
यह रास्ता तो संसद की ओर जाता है
उसे रोको अयम्मा………………उसे रोको……..
तुमने उसे क्या सिखा दिया
अचानक होंठ तुम्हारे हिलने क्यों लगे अयम्मा
यह तुम क्या कह रही हो
सुनो
तुम सब सुनो
तुमलोग हत्यारे हो सपनों के
मेहनत के
हमारी लहलहाती फसलों के
हमारे वसंत के
मैंने बहुत सह लिया
पर शारदा वह सब नहीं करेगी
वह बदला लेगी तुमसे
वह मेरा, मेरे पूर्वजों और मेरे समाज का
हिसाब माँगने जा रही है।