सदियों से चलते चलते
फूल गयी है घडी की सांस..
एक टिक के बाद
दूसरी टिक की आवाज़
बरसों में आती है अब !
कुछ पक्षी जा रहे हैं
पूरब की ओर क़तार बनाकर।
इस बार ना बौराने के कारण
बौरा-सा गया है आंगन का आम !
आराम कुर्सी पर लेटा दर्द
पढ रहा है
निरोग रहने के नुस्खे !
बड़े ज़ोरों की लगी है भूख
और रसोई में पकाने को
बस ज़हर बचा है !
कलम खाली है,
और सूख चुकी हैं
स्याही की तमाम शीशियां
ऐसे हालात में,
जो दे सकती थीं हौंसला
उन सारी क़िताबों को
पढ डाला है दीमकों ने !
इतना खतरनाक हो गया है समय
कि नशा होने कि बजाय
होश आता है अब शराब पीने से
नींद पूरी होकर टूट चुकी है
रात आधी है
और आधी ही रहना चाहती है आज से !
सोना ज़रूरी हो गया है..
नींद की गोली समझकर
मैंने निगल लिया है चाँद
और रात से माँगकर पी गया हूँ
ढेर सारा अन्धेरा !
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
नींद की गोली समझकर मैंने निगल लिया है चाँद और रात से माँगकर पी गया हूँ ढेर सारा अन्धेरा !
khoob bahut khoob kavita bahut suder hai
badhai
saader
rachana
बहुत अच्छी कविता है . एक अलग सा एहसास दे गया .
“नींद पूरी होकर टूट चुकी है
रात आधी है
और आधी ही रहना चाहती है आज से !
सोना ज़रूरी हो गया है..
नींद की गोली समझकर
मैंने निगल लिया है चाँद
और रात से माँगकर पी गया हूँ
ढेर सारा अन्धेरा !” काबिले तारीफ़ है ये कविता! सुन्दर भी है और कुछ अलग तरह की भी. कहते हैं कि वक्त ने किया क्या हसीं सितम ...तुम रहे ना तुम हम रहे ना हम! आपने पूरी कविता ही वक्त से लिखवा दी. क्या कमाल का लेखन चातुर्य है? अश्विनी कुमार रॉय
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