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Saturday, September 11, 2010

समय


सदियों से चलते चलते
फूल गयी है घडी की सांस..
एक टिक के बाद
दूसरी टिक की आवाज़
बरसों में आती है अब !
कुछ पक्षी जा रहे हैं
पूरब की ओर क़तार बनाकर।
इस बार ना बौराने के कारण
बौरा-सा गया है आंगन का आम !
आराम कुर्सी पर लेटा दर्द
पढ रहा है
निरोग रहने के नुस्खे !
बड़े ज़ोरों की लगी है भूख
और रसोई में पकाने को
बस ज़हर बचा है !
कलम खाली है,
और सूख चुकी हैं
स्याही की तमाम शीशियां
ऐसे हालात में,
जो दे सकती थीं हौंसला
उन सारी क़िताबों को
पढ डाला है दीमकों ने !
इतना खतरनाक हो गया है समय
कि नशा होने कि बजाय
होश आता है अब शराब पीने से

नींद पूरी होकर टूट चुकी है
रात आधी है
और आधी ही रहना चाहती है आज से !
सोना ज़रूरी हो गया है..

नींद की गोली समझकर
मैंने निगल लिया है चाँद
और रात से माँगकर पी गया हूँ
ढेर सारा अन्धेरा !

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

arun dev का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
rachana का कहना है कि -

नींद की गोली समझकर मैंने निगल लिया है चाँद और रात से माँगकर पी गया हूँ ढेर सारा अन्धेरा !
khoob bahut khoob kavita bahut suder hai
badhai
saader
rachana

Unknown का कहना है कि -

बहुत अच्छी कविता है . एक अलग सा एहसास दे गया .

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“नींद पूरी होकर टूट चुकी है
रात आधी है
और आधी ही रहना चाहती है आज से !
सोना ज़रूरी हो गया है..
नींद की गोली समझकर
मैंने निगल लिया है चाँद
और रात से माँगकर पी गया हूँ
ढेर सारा अन्धेरा !” काबिले तारीफ़ है ये कविता! सुन्दर भी है और कुछ अलग तरह की भी. कहते हैं कि वक्त ने किया क्या हसीं सितम ...तुम रहे ना तुम हम रहे ना हम! आपने पूरी कविता ही वक्त से लिखवा दी. क्या कमाल का लेखन चातुर्य है? अश्विनी कुमार रॉय

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