दो झोले लेकर चला था मैं सफर को
एक में पाप बटोरने थे
एक में पुण्य
राह में एक तरफ पाप
दूसरी तरफ पुण्य
बिखरे पड़े थे
पाप की राह में छांव थी
शीतल जल ..... लुभावना संगीत
खुशबुएँ ........... रसीले स्वाद
सुर......सुरा....सुंदरियाँ ...
क्या नही था
सब कुछ लुभावना
अपना सा था
पराया कुछ भी नही था
दूसरी तरफ कुछ नही था सहज
धूप में तपते पत्थर
नि:शब्द रुदन ...
रहस्यमयी सिसकियाँ .....
हर तरफ़ मदद को पुकारते हाथ उग रहे थे
हर तर्जनी की पौर पर ठहरा था एक आंसू
जो फकत मेरी रूह की छुअन चाहता था
मगर छूना तो दूर
मैं उस तरफ़ देख भी ना सका
किसी एक आंख वाले ऊंट की तरह
एक तरफ चरता चला गया
और पापों से अपनी झोली
भरता चला गया
धीरे धीरे बोझ से मेरा जिस्म
एक ओर झुकता चला गया
और फ़िर एक दिन
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
पाप के लहराते समंदर में जा गिरा
तभी
कुछ हाथ आगे बढे
मेरे डूबते सर पर
सफेद टोपी पहना दी
.........और................
मेरे सभी पाप
पुण्य में बदल गए
,
विनय के जोशी
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
धूप में तपते पत्थर
नि:शब्द रुदन ...
बहोत बधाई आपको ऐसे शब्द संजोने के लिए अभोत बहोत बधाई..
नए भाव संजोये सुंदर रचना | पढ़ के खुशी हुई की हम भले ही पाप की तरफ़ ही बढे लेकिन उसको माना तो सही | वैसे भी पाप वो होता है जो छुपाया जाए | हम सब एक ही पथ के पथिक है ,जाने अनजाने हमें उस पथ पर चलना ही पड़ता है |
सुंदर रचना के लिए बधाई ......सीमा सचदेव
भाई विनय जी,बहुत अच्छे पहली पंक्ति ने ही बाँध लिया.बहुत ही शानदार.
आलोक सिंह "साहिल"
nice work....
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बहोत बढिया विनय जी, विषय भी अच्छा,भाव गहरे और कविता छू लेने वाली। बधाई।
धीरे धीरे बोझ से मेरा जिस्म
एक ओर झुकता चला गया
और फ़िर एक दिन
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
पाप के लहराते समंदर में जा गिरा
तभी
कुछ हाथ आगे बढे
मेरे डूबते सर पर
सफेद टोपी पहना दी
वाह! बहुत सुंदर लिखा है.
जैसे हवाओं से लौ शमओं की थरथराये
यादों से उसकी ये दिल जल-जल मचल रहा है
इब्तेदा-ओ-कुर्बत, इन्तहा* थी उसकी मर्ज़ी
वाह! बहुत खूब.
जोशी जी आप हमेशा अच्छा ही लिखते है! ये भी आपकी बहुत अच्छी लगी वाकई सुंदर लेखनी के लिए बधाई !
हर तर्जनी की पौर पर ठहरा था एक आंसू
जो फकत मेरी रूह की छुअन चाहता था
ये लाइन मुझे बहुत अच्छी लगी और आप ने सच ही कहा कहा की पाप वाले रस्ते बहुत लिभाते है .सफ़ेद टोपी का तो ये कमल है ही की वो पाप को पुण्य में बदल दे
बहुत खूब
सादर
रचना
तभी
कुछ हाथ आगे बढे
मेरे डूबते सर पर
सफेद टोपी पहना दी
.........और................
मेरे सभी पाप
पुण्य में बदल गए
बहुत ही सुन्दर व्यंग्य
कविता के अंत मे ही मूल भाव समझ आया
बेहतरीन रचना, बधाई स्वीकारे
सुमित भारद्वाज
----बेहतरीन कविता के लिए बधाई स्वीकारें--
----देवेन्द्र पाण्डेय।
सफेद टोपी तो जादुई होती है!
अच्छा व्यंग्य है गुरू।
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