मैंने देखा एक पिता
एक नन्ही बालिका की
मधुर मुस्कान पर
सुध-बुध भूला पिता…….
आँखों से छलकती
स्नेह की गागर
लबालब वात्सल्य छलकाती थी
और बालिका एक किलकारी
अतुल्य दौलत दे जाती थी
क्रूर, कठोर, निर्दय जैसे विशेषण
दयालु, कोमल और बलिदानी
में ढल गए
बेटी को देख……
सारे हाव-भाव बदल गए
क्या यह वही पुरूष है
जिसे नारी शोषित और अत्याचारी
समझती है ?
ना ना ना .......
ये तो एक पिता है
जो बेटी को पाकर
निहाल हो गया है
ममता की यह बरसात
जब और आवेग पाती है
पत्नी से भी अधिक प्रेम
बेटी पा जाती है
प्रेम की दौलत बस
बेटी पर बरस जाती है
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
प्रेमान्ध पिता
घरोंदे बनाता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
पिता और पुत्री का
एक अनोखा ही नाता है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahut hi sundar bhav vyakt huyi hai khubsurpita ke man ke apni beitya ke liye badhai
MUJHE KAVITA ME INTEREST NAHI MAGAR AAPKI YE KAVITA PADH BAHUT ACHA LAGA.
SHUAIB
सुन्दर अभिव्यक्ति शोभा जी
"पापा के सागर की मोती
सचमुच में बिटिया होती है..
हंसो के संग हंसकर जाती
लेकिन वो छुप छुप रोती है.."
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
प्रेमान्ध पिता
घरोंदे बनाता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
पिता और पुत्री का
बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना शोभा जी .सही लिखा है आपने
सुन्दर कविता शोभाजी! पिता-पुत्री के संबन्ध व जग की यथार्थ रीति-नीति पर मार्मिक कविता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
पिता और पुत्री का
एक अनोखा ही नाता है
शोभा जी!
कविता पढना शुरू किया तो ऎसा लगा कि आप बेटी के लिए पिता के निश्छल प्रेम को दर्शाना चाहती हैं,लेकिन मध्य आते-आते पत्नी और बेटी के प्रेम के बंटवारे का प्रयास मुझे नहीं भाया।
पत्नी से भी अधिक प्रेम
बेटी पा जाती है
प्रेम की दौलत बस
बेटी पर बरस जाती है
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
इन पंक्तियों में आप पिता की प्रशंसा कर रही हैं या कि एक पति की अवहेलना?
एक और पंक्ति की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा......आपने जिस उद्देश्य से इस पंक्ति "क्या यह वही पुरूष है
जिसे नारी शोषित और अत्याचारी
समझती है ?" को रचा है, उसमें शोषित के बजाय शोषक शब्द उचित होगा.....वैसे पिता के बारे में लिखने के क्रम में पुरूष का यह रूप न हीं दिखाया जाता तो अच्छा होता,क्योंकि माँ के बारे में जब लिखा जाता है तब सा़स-बहू वाले प्रलाप नहीं किये जाते। वैसे यह मेरा मत है......अन्य पाठक-मित्रों ने ऎसा कुछ नहीं कहा है,इसलिए मैं गलत भी हो सकता हूँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
कविता का प्रारंभ और अंत हॄदय-स्पर्शी है । किन्तु मध्य- बिखर गया है। विश्व दीपक तन्हा के कथन से मैं
पूर्णतया सहमत हूँ। यह हम सब का कर्तव्य होना चाहिए कि स्वस्थ मन से जहां कहीं कमी हो --(कम से कम शोषित और शोषक जैसी गंभीर चूक पर) ध्यान इंगित करें--मात्र प्रशंसात्मक टिप्पणी से कमियॉ उजागर नहीं होतीं।
स्वस्थ आलोचना से कवि का हमेशा भला ही हुआ है। ----देवेन्द्र पाण्डेय।
पत्नी से भी अधिक प्रेम
बेटी पा जाती है
प्रेम की दौलत बस
बेटी पर बरस जाती है
और प्रेम की अधिकारिणी
प्रेम से वंचित रह जाती है
प्रेमान्ध पिता
घरोंदे बनाता है
अपने सारे सपने
बेटी में ही पाता है
पर बेटी के ब्याह पर
बिल्कुल अकेला रह जाता है
शोभा जी इसके आगे कहने के लिए कोई शब्द ही नही है |badhaaii
पिता और पुत्री का
एक अनोखा ही नाता है
सचमुच!!! बेहतरीन रचना शोभाजी,
***राजीव रंजन प्रसाद
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