वो मेरे प्राण प्रिय
वो तुम ही तो हो
वो जिसका निश्छल प्रेम
कल कल करती नदिया बनकर बह्ता है
वो जिसके अन्जुमन मे
ताज़गी का हर स्त्रोत रह्ता है
वो तुम ही तो हो....
अटूट श्रद्धा का हार
मुक्ति का अन्तिम द्वार
वो शाख जीवन कि जिसपर
गुल प्रियसी का गीत गाता है
वो विस्मय स्वप्न रेशम जाल
जो चक्शूओं में स्थापित हो जाता है
वो तुम ही तो हो....
बसन्त ऋतु की बहार
पंछीओं का मलहार
वो धवल श्वेत किरण चाँद की
जिसका नूर हर तन की शीतलता है
वो विनोदी भक्ति प्रेम प्रपात
जिसके तले द्वेश मठमैला धुलता है
वो तुम ही तो हो....
रस ध्वनी का प्रचार
तपस्या का प्रहार
वो शब्द का निशब्द कोहरा
जिसके धुंधलके मे ब्रम्हांण खो जाता है
वो नीलांबरी उनमाद भोर अनुभूती
जिससे सब जग प्रफ़ुल्लित हो जाता है
वो तुम ही तो हो....
जोगन का सार
जलतंरग का विस्तार
वो ओम का निश्चित अलौकिक प्रमाण
जो विलीन विभोर भीतर हो जाता है
वो युगों सधा हुआ मौन विचार
जो अनादी-अनन्त तक जीवित रह जाता है
वो तुम ही तो हो....
स्नेह से भरी गागर
भावुकता का सागर
वो तुम ही तो हो....
वो मेरे प्राण प्रिय
वो तुम ही तो हो...
---अनुपमा चौहान
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह अनुपमा जी वाह!
आपने प्रेम की स्वस्थ परिभाषा प्रस्तुत की है।
एक-एक पंक्तियों में सम्बन्धों की व्याख्या है।
"मुक्ति का अन्तिम द्वार"
अतिसुन्दर प्रेम प्रवाह देखने को मिला है आपकी इस कविता में, बहुत ही सार्थक लग रही है खासकर ये पंक्तियाँ -
अटूट श्रद्धा का हार
मुक्ति का अन्तिम द्वार
बधाई स्वीकार करें!
सुंदर शब्दों के साथ सार्थक प्रेम की लयबद्ध कविता…बधाई हो आपको…
Anupamaji,lagta hai aapki rachana Guljarji ke hindi songs se mel khati hai.Galat mat samajhiye,geya hai,aasan shabdonmein arth bharpur hai isliye kaha.
शुद्ध हिंदी का मलहार आपने छेड़ा है, जो विरले हीं नजर आता है। अनुपमा जी ,आपने इस समूह को एक नया हीं रंग दिया ह। मैं इतना अनुभवी नहीं कि आपकी कविता पर कुछ टिप्पणी कर सकूँ। परन्तु मैं इतना हीं कहूँगा कि आपने प्रेम की सटीक व्याख्या की है। बधाई स्वीकारें।
सहज, सुशील , सुंदरतम ।
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